सबसे दुखद
सबसे दुखद
आवाज़ों का दबना सबसे दुखद नहीं होता,
शासन और बंदूक की तानाशाही भी सबसे दुखद नहीं होती।
सत्ता का खेल भी सबसे दुखद नहीं होता।
सबसे दुखद होता है उम्मीदों का टूटना,
सबसे दुखद होता है साथ अपनों का छूटना।
सबसे दुखद होता है सबकुछ हाथ में होते हुए भी हाथ- पे- हाथ रखकर बैठना,
सबसे दुखद होता है जुबान होते हुए भी बेजुबान बने रहना,
ताकतवर होते हुए तटस्थ रहना।
सबसे दुखद होता है इच्छाओं का दबना,
हौसलों का यूं ही हलाल होते रहना,
इससे दुखद भी भला कोई दुखद बात है क्या ?
सबसे दुखद होता है अपने को आप ही लूटना !
भरोसे पर से भरोसा का टूटना।
चूंकि सरकारें अक्सर ही बेसरकार आवाजों को दबाने का,
असंतोष की चिंगारी को बुझाने का हरदम प्रयत्न में रहती है,
मगर इनकी आवाज़ कहाँ, कब और कैसे दबने वाली ?
जनमत की ताकत है इनकी हथेली पे ,
भले ही इनके बेबसी के दुखड़े को जनसभाओं में राग अलापते हैं !
मगर सबसे दुखद यह है कि आज तक ये क्यों हाशिये पे हैं ?
क्यों मुट्ठीभर लोगों की इक्कीस दिन में पैसा डबल हो रहा है?
कहा जाता है की लोकतंत्र में प्रजा ही राजा होते हैं,
कुछ देर के लिए सिद्धांतवादी बन मान भी लिया मैंने।
मगर सबसे दुखद यह है कि क्या यह शासन- प्रशासन की व्यवहार में झलकता है?
आखिर में सबसे दुखद है रटी- रटायी बातें मानना।
