साँसें
साँसें
मेरी एक आह पर थम जाती है सांसें
एक पल दूर जाने से भर आती हैं आंखें
कहते हो जिगर का टुकड़ा
कैसे रहूंगी उस घर में बिना तुम्हारे।
अपनी सांसों की डोरी को
दूर भेज कर रह पाओगे मुझसे
जमाने को क्या जरूरत थी
इन रिवाजों की मां-पापा
विदा हुई हूं लगता।
है डर दो घर है मेरे पर
आज इन पलों में खुद को पाती हूं
बिल्कुल अकेली बेघर
न ही इधर हूं ना ही उधर
कैसा है यह ? अनजाना सफर।
