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Pinkey Tiwari

Abstract

4.1  

Pinkey Tiwari

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सांझ

सांझ

2 mins
476


बँट रहीं थीं नेमतें जब, क़तार में मैं भी खड़ा था,

हाँ, सारी कायनात में, तब "जीवन" बँट रहा था।


कर्मों की पोटली थी एक, मुझ आत्मा के पास,

देखकर उस पोटली को, हुआ मुझे कुछ यूँ एहसास।


ग़र मिल जाए मुझे जन्म, धन्य मैं हो जाऊँगा,

जन्म लेकर धरा पर, नेमत मैं भी लुटाउँगा।


"तथास्तु" का स्वर गूंजा, ईश्वर आहिस्ता से बोला,

बनाया मुझको आम का पेड़, जन्म-कर्म का रास्ता खोला।


बीज बनकर धरा पर गिरा मैं, मिटटी के प्रेम से सिंचता रहा मैं।

धीरे-धीरे कोंपलें फूटने लगीं, मेरे अस्तित्व की सब हदें टूटने लगीं।


कभी चली बयार प्रेम की, कभी आँधियों से भी घिरा,

पर डटकर खड़ा रहा मैं, अपनी जगह से ना गिरा।


देखे सब मौसम मैंने, गर्मी, सावन, वसंत, पतझड़,

मुश्किलों के झंझावात में भी, टस से मस न हुई मेरी जड़।


जब सावन आया खिल गया मैं,

प्यारे परिंदो का आशियाना बन गया मैं।


कितनों ने पत्थर फेंके, पर रीत प्रेम की न बदली मैंने,

बाँटी सदा मिठास मेरी, कड़वी गोली निगली मैंने।


कभी मुसाफिर आए, बैठे छाँव में दो पल,

छाँव मेरी कुछ काम आई, जीवन मेरा हुआ सफ़ल।


फूल, छाँव, आश्रय, ठंडक, देता रहा सबको मैं,

ये ही थीं कुछ नेमतें, जो बाँटता रहा सबको मैं।


फिर अचानक एक दिन, न जाने कैसा पतझड़ आया,

दिखती थी बड़ी पहले, पर अब सिकुड़ गई मेरी काया।


आम भी न लगते थे, न फूटती थीं कोंपलें,

वीरान-सा मैं हो चला था, न कूकती थीं अब कोयलें।


कहने लगे सब ठूंठ मुझको, जो पूजते थे कभी मुझे,

क्यों बदल गया सब कुछ, कोई कारण नहीं सूझा मुझे।


एक दिन कहने लगे मेरे ही वो "अपने लोग",

इस पुराने पेड़ को लग गया है कोई रोग।


इसकी न अब कोई देखभाल कर पाएगा,

क्यों न कर दें इसे "प्रत्यारोपित", भला अब हमें ये क्या दे पाएगा ?


ले जाकर मुझे सीमेंट की सड़कों संग रौंप दिया,

आज मेरे अपनों ने मुझे, परायों को सौंप दिया।


ठूंठ था मैं, पर छाँव तो दे ही सकता था,

अपनों से यूँ बिछड़ना, मैं कैसे सह सकता था।


बस एक बार मेरी जड़ों को कोई, प्रेम-जल से सींच देता,

तृप्त होकर जीवन से, मैं आँखें अपनी मींच लेता।


लेकर मैं आया था कितनी आशाएँ, एक बीज के रूप में,

कभी फल, कभी ठंडक, कभी छाँव, बाँटता रहा धूप में।


कर्मों की पोटली भी खाली हो चुकी थी,

नेमतें भी मेरी सब लुट चुकी थीं।

कुछ कंकर थे पोटली में अब,

बिछोह, उपेक्षा, घृणा, और अवसाद के,

जो चुभ रहे थे प्रश्न बनकर,

मानवता के अपवाद के।


क्या यही है नियति जीवन की साँझ की,

जीवन के अंत की, वृद्ध होने की ?


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