नायक
नायक
नायक वही जो सत्य को स्वीकार करता है,
हो गलत ग़र कोई बात तो, प्रतिकार करता है।
किस काम के वो पितामह, जो मौन बैठे थे,
थे कुल-प्रमुख, लेकिन वो बनके गौण बैठे थे।
लुट गया सब द्यूत में, जो भी रहा सर्वस्व था,
'यज्ञसेनी' बच गई, अब दांव पर वर्चस्व था।
पासे शकुनि के कुछ यूं चाल चल गए,
अनभिज्ञ पांचाली के आँचल को भी छल गए।
ऊपर उठाकर हाथ अपने 'हे गोविन्द' पुकारी,
आओ हे गोविन्द ! रखो लाज हमारी।
एक वस्त्र के टुकड़े के बदले, जो वस्त्र का अम्बार करता है,
मृत आत्मा में धर्म का संचार करता है,
नायक वही जो सत्य को स्वीकार करता हे।
हर के सिया को साथ अपने, ले गया लंकेश,
करता कभी अट्ठाहसे, कभी खींचता था केश।
प्रिय से विलग हो बिलखती, व्याकुल सिया को देख,
वृद्ध जटायु के मन में, लग रही थी ठेस।
जानता था वो लंकेश को न हरा पाएगा,
मृत्यु के मुख में शीघ्र ही, वो समा जाएगा।
लेकिन लड़ा वो श्वास जब तक, वश में उसके थी,
जर्जर से होते पंखों में, शक्ति जब तक थी।
लंकेश का हर वार भी वो, सहज सह गया,
सिय को बचाने हेतु, उसका रक्त बह गया।
लड़ता रहा वो, जबकि ये रण न उसका था,
पर धर्म की रक्षा का पावन क्षण ये उसका था।
दे दिया सन्देश प्रभु को, सीता के हरण का,
मिली गोद प्रभु की, न भय था मृत्यु के वरण का।
धर्म की रक्षा के हित, जो मृत्यु से भी, आँखें चार करता है,
नायक वही जो धर्म को अंगीकार करता है,
मृत आत्मा में धर्म का संचार करता है,
नायक वही जो सत्य को स्वीकार करता है,
हो गलत ग़र कोई बात तो प्रतिकार करता है।
