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Pinkey Tiwari

Classics

4.1  

Pinkey Tiwari

Classics

कर्ण का पश्चाताप

कर्ण का पश्चाताप

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ममता की शाख से टूटा हुआ एक पर्ण हूँ,

'वसुसेन' भी, 'राधेय' भी, मैं सूर्यपुत्र कर्ण हूँ।


सन्तभक्त एक स्त्री को ऋषि दुर्वासा का वरदान मिला,

जिज्ञासावश शुद्ध संकल्प से मुझको प्रादुर्भाव मिला।


लोकलाज वश निष्ठुर ममता मुझको ना अपना पाई,

शापित शैशव करके मेरा गंगा में अर्पण कर आई।


मिले अधिरथ राधा मैया, मुझको 'वसुसेन' नाम दिया,

पितृ-प्रेम और ममता से, मृत जीवन को मेरे प्राण दिया ।


दिव्य देह संग उपहार मिले, मुझको स्वर्ण कवच कुण्डल,

आकर्षित करता था प्रतिपल, सूर्यदेव का आभामंडल ।


विद्यार्जन की अभिलाषा से मैं, पहुँचा गुरु द्रोण के पास,

लेकिन क्षत्रिय ना होने से पूरी हुई न मेरी आस।


पर आशा न खोई मैंने, परशुराम के पास गया,

झूठ बोलकर "मैं ब्राह्मण हूँ" विद्या का उपहार लिया।


लेकिन विधान विधि का, इतना भी नहीं सुगम होता,

सत्य प्रकट होकर रहता है, चाहे कितना भी हो छुपा रखा।


इंद्रदेव ने बिच्छू बनकर परशुराम पर वार किया,

लेकिन मैने दंश झेलकर गुरुधर्म का निर्वाह किया।


क्रोधित हो गए परशुराम, जब सत्य मेरा प्रकट हुआ,

श्राप मिला सब विस्मित होने का, जीवन मेरा विकट हुआ।


द्वितीय श्राप मिला धरती माँ से, जब पीड़ा मैंने पहुंचाई,

एक निर्बोध बालिका की विनती पर, जब करुणा मैंने दिखलाई।


कुपित हो धरणी माँ बोली,सुन कर्ण तू अब पछताएगा,

जब कुरुक्षेत्र की रणभूमि में, पहिया रथ का धँस जायेगा।


रंगभूमि में पांडवो ने

, मुझे सूतपुत्र कहकर वंचित किया,

दुर्योधन ने बना अंगराज मुझे, बीज मित्रता का सिंचित किया।


पुनः द्रौपदी ने स्वयंवर में सूतपुत्र कहकर दुत्कारा था,

त्राहि-त्राहि करके मेरा अंतर्मन चीत्कारा था।


बनकर पाषाण ह्रदय मैंने, एक प्रतिज्ञा ली तभी,

इस घोर अपमान का, प्रतिशोध लूंगा मैं कभी।


जब पांडव हारे सर्वस्व अपना, प्रतिशोध का वो क्षण आया,

"स्त्रीधन" भी जब पांडवों का, किंचित न रक्षित रह पाया।


हुआ आरम्भ प्रचंड एक रौद्र महाभारत का,

भूले सब गरिमा अपनी, भाई रहा न भाई का।


अबेध कवच, कुण्डल, शस्त्रों से मैंने, विजित स्वयं को मान लिया,

लेकिन छल से इंद्रदेव ने, मेरा सब कुछ मुझसे माँग लिया।


फिर आई वो बेला भी जब, कर्मों से साक्षात्कार हुआ,.

कभी अस्त्रविहीन, कभी शस्त्रविहीन, मैं विद्या अपनी सब भूल गया।


एक श्राप बचा था पृथ्वी माँ का, वो भी समक्ष अब था खड़ा,

रणभूमि में मेरे रथ का, अब पहिया भी था धँस पड़ा।


नियमों का आश्रय लेकर जब मैंने रोका अर्जुन को,

तब अर्जुन ने बोलाकहाँ थे नियम जब मारा था असहाय अभिमन्यु को ?"


कर्मफल भुगतने के सिवा, अब कोई ना था उपाय बचा,

"ब्रह्मास्त्र" चलाया अर्जुन ने, और इस सूर्यपुत्र ने प्राण तजा।


मैं दानवीर था, योद्धा था, और धनुर्धर महान था,

लेकिन दुर्योधन के उपकार तले, दबा हुआ मेरा स्वाभिमान था।


मेरे जीवन का सार यही, है विश्व को बतलाना,

उपकार तले हो भले दबे, पर मार्ग धर्म का ही अपनाना "


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