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Rajiv Jiya Kumar

Abstract Classics Inspirational

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Rajiv Jiya Kumar

Abstract Classics Inspirational

रूह।~~~

रूह।~~~

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पूरी कायनात 

लगी जब साथ-साथ 

मंजिल-ए-मुकद्दर लग गई हाथ 

जमात-ए-रूह की

थी यह सौगात 


फिर जी लूँ कैसे कर

खुद से अलग इन रूहों को

जले जो तिल तिल 

मुझ अदने रूह की खातिर 

बिसरा कर अपनी औकात।।


वह दिन और वह रात 

चस्पां है मष्तिष्क और मन पर 

हर रूह सह हर सितम

वक्त का अपने तन पर 

मुझ अदने रूह की खातिर


कर दिया निसार अपनी हर स्मित 

फिर इन रूहों से दूर होकर 

सज्जा मैं जो करूँ

क्या न होगा यह सब 

उनके सपनों पर आघात।।


एक रूह की खातिर 

इन रूहों को वार दूँ

क्या यह सरल सहज है

कि इस तरह मैं अपने जमीर को मार दूँ।।


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