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Rajiv Jiya Kumar

Abstract Tragedy Classics

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Rajiv Jiya Kumar

Abstract Tragedy Classics

क्या यह तुम थे

क्या यह तुम थे

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मुख मोड़कर ऐसे चल दिए 

जैसे कोई न है रिश्ता 

चुप से दर्द तो तुम वह दे लिए 

जो घाव मानिंद पल पल है रिसता।।


यह कैसी मनमानी थी

सहते रहे कुछ कह लेते

क्यूँ जाना मुझे बेमानी है

हम जां अपनी तुमको देते

दर्द की चक्की तो पल पल न पिसता।।


एक काल कोठरी बन रह गया

वह जीवन अब जो जीना है

इस उम्रकैद की सजा सुना दिया

बिन बोले,बिन सुने फरियादी बना दिया

हिय सिसक सिसक है अब टिसता।।


जाना तो तय है जब से हैं आए

जाने की बारी मेरी थी रही

रब को तुम ऐसे क्यूँ भाए

चल दिए समेट अपनी हस्ती 

छोड़ हमें पीछे सिसकते स्वजीता।।


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