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Rajiv Jiya Kumar

Abstract Classics Others

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Rajiv Jiya Kumar

Abstract Classics Others

अजनबी। =======

अजनबी। =======

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अजनबी सा लगता हूं 
जब अंतर्मन को टटोल देखता हूं 
एक अजीब सूनापन सा पसरा दिखता है
जब काल के ताल को देखता हूं 
यह थपकी दे दे सहलाता है
बेबस हिय को बहलाता है
पर सूकून कहां ला पाता हूं।।
जब अंतर्मन को टटोल कर देखता हूं 
अजनबी सा लगता हूं 
यह ख़ामोशी जो सिमट आगोश में आई
इसकी न कर पाया कोई भरपाई 
निरंतर वह सब सरकता चला गया 
जैसे मुठ्ठी में भरी रेत वहीं कहां धम पाई
साध लूं वक्त को सांस है जब तक 
पर वक्त से वक्त मिले चाहत हीं रख पाता हूं।।
मति है पूरी तरह भरमाई थरथराई
झोली जो भर कर थी अब तक रख पाई
खनकती भरी झोली झनझनाती रही
आज वह सिक्के अपने है पर बिखरे क्यूं दिखते हैं
ख़ता जो करी बिखरी अपनी प्रज्ञा के संग 
अब तो मानो पल पल प्रज्ञाविहिन हुआ जाता हूं,
आज खुद को अजनबी सा पाता हूं।।
                          ✍️ राजीव जिया कुमार,
                              सासाराम, रोहतास, बिहार।






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