तन्हाई।।
तन्हाई।।
बचपन की बात निराली
याद आज हो आई
जब तरू की एक गुठली
दबा भू तले हसरतें फुसफुसाई
अब साया तले इसके
पा लेंगे सुकून
काया ग़र थकेगी
छोड़ अपनी ही परछाई।।
बढ़ा ले जाने को
अस्तित्व, आकार के उसको
हर जतन, जतन से लगाई
मति थी नहीं
तब जरा भी भरमाई
बिन सुबहा यह तय था
पाएगा यह अपनी निश्चित ऊँचाई।।
रह घूमता वक्त का पहिया
हरियाली झर झर लहराई
सींचा बदले में नीर के
जिसे अपने खून पसीने से
लद गए फूल फल से
संगी से रहकर संग संग
वही स्नेह जो थी मैंने उगाई।।
उस मिठास को
चख लेने की बारी आई
वक्त शायद हुआ निष्ठुर
वार बार बार भरपूर हुआ
कुछ फल मीठे
बिखरे इधर उधर
ठूंठ खड़े रहे
हिस्से में बस रही तन्हाई।।