रूह वाला शरीर
रूह वाला शरीर


मैं आसपास नज़रें दौड़ाता हूँ
और पाता हूँ
ढेर सारे शरीर.....
वह सिर्फ शरीर होते है
बिना रूह के शरीर.....
वे मेरे साथ रहते है....
मेरे साथ बात करते है...
मेरे साथ साथ घूमते है....
कभी साथ खाते भी है...
मैं कभी मन की बात करने के लिये अकुलाता हूँ
मेरे मन में चाह होती है
मन की बात करने के लिए.....
उन शरीरों में हर एक को दो कान होने के बावजूद मेरे मन की बात मन में रहती है
न जाने क्यों मुझे वे सारे शरीर बिना रूह के लगते है
क्योंकि दोनों कानों से मेरी बात सुन कर भी वे मेरे से संवाद नहीं करते है....
क्योंकि संवाद करने के लिए सुनने की जरूरत होती है..…
रूह से रूह तक सुनने वाली बात...
कोई कहेगा, ये कवि पता नहीं क्या आएँ बाएँ शाएँ लिखते रहते है.....
कानों की बात तो हर कोई सुनता है...
रूह की सुनने वाली कौन सी बात?
कौन सी रूह?
कैसी रूह?
हाँ, कभी यह शरीर भी रूह वाला हुआ करता था ....
आजकल शरीर मात्र एक
">डेटा है....
मार्केटिंग करने के लिए.....
चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया....
शरीर तो मात्र कंज़्यूमर है.....
सोशल मीडिया? उसके लिए क्या कहना?
वह तो आपकी हर बात पर नज़र रखने लगा है
वह बस उस शरीर को जानता है...
लॉग इन करने वाले शरीर को.....
उसके लिए वही महत्वपूर्ण है....
एक बार लॉग इन होने के बाद अस्सल खेल शुरू होता है......
खेल भी कैसा?
शरीर और रूह का खेल.....
जिसमें शरीर तो मौजूद रहता है
लेकिन थोड़े ही दिनों के बाद रूह उकता जाती है......
क्या देखेंगे?
क्या करेंगे?
किस विचारधारा को मानेंगे?
क्या पसन्द है?
क्या नापसंद है?
लिखने के पहले ही शब्द सुझायें जाएँगे
क्या वह फिर रूह रहती है?
वह तो मात्र एक शरीर रहता है
मात्र एक डेटा.....
इस डिजिटल युग में जरूरत है मुझे
एक रूह वाले शरीर की....
एक रूह वाले शरीर की....