रस्में हैं या बंधन
रस्में हैं या बंधन
रस्में हैं या बंधन हैं ?
दम घुटता है या संस्कारों का दमन है ?
इच्छाएं स्वतंत्र हैं या नियंत्रण हमारा खो रहा ?
हृदय में कैसा युद्ध ये हो रहा ?
बढ़ चले जो ये कदम आज़ादी पाने को ,
अच्छा है या मनुष्य विनाश के गर्त में पल रहा ?
रिश्ते नाते सब बंधन लगते,
नियम क़ानून गुलामी में तुलते ।
दोष इसे कहूँ मैं किसका
सभ्यता का या वायु के रुख में परिवर्तन जो ये हो रहा ?
न गलत कोई भी लगता है
फिर सबका हक क्यों खो रहा ?
पर कारण तलाश करें तो , शून्य मनुष्य हो रहा ।
क्या समझ का है फेर? क्या झुकने से ही है मेल ?
फिर आज़ाद कौन हो रहा ?
इक पिंजरे में बैठा ,इक चार दीवारी में रो रहा ।
कोई बाहर निकलकर भीतरी सुकून को तलाश रहा ।
तृप्त नहीं दिख रहा कोई, हर किसी का हृदय संशय से भरा ।
सपने जिसके टूटे हुए जिसके पूरे ,
हर कोई दर दर है भटक रहा ।
इक बेचैनी इक उदासी
अधरों पर मुस्कान मगर यावा-सी ।
मौज मस्ती के ढेरों साधन
मगर मस्त होकर भी मस्त नहीं कोई दिख रहा ।
अपेक्षा-उपेक्षा से सबका घड़ा भरा ,किस ओर समाज ये बढ़ रहा ?
जो पास हैं वो दूर हो रहे ,दूर हैं जो उन्हें पास लाने के जतन चल रहे ।
प्रैक्टिकल होकर ख़्वाबों की दुनिया में जी रहे
या कच्चे ख्वाब सब पिरो रहे ?
नाम आज़ादी का देकर क्या पतन की ओर सब मुड रहे ?
छोटी-सी इस ज़िन्दगी में जिंदा रहने के नहीं ,जीने के रस्ते हम ढूँढ रहे ।
क्यों रिश्ते सब बिखर रहे,क्यों एक दूजे से जल रहे ?
क्यों एक-दूजे की आज़ादी में,खुद को छोटा महसूस कर रहे ?
संस्कारों की आड़ में,क्यों घुटकर सब मर रहे ?
दूसरों पर थोपते संस्कार नाम जो समाज का ले रहे ।
खुद ज़ंजीरें तोड़कर दुहाई समाज की दे रहे ।
वो भी उस समाज की, जिसमे सब अवगुण पल रहे ।
क्यों स्वच्छंदता की आड़ में,हर रिश्ता इक बलि चढ़ रहा ?
क्या इतनी कमज़ोर हो गयी डोर
काट रहा कोई कट रहा
क्यों निरुत्तर केवल प्रश्न लिए हर व्यक्ति एक-दूजे को तक रहा ?
