मैंने भी मोहब्बत की थी...!
मैंने भी मोहब्बत की थी...!
मैंने भी मोहब्बत की थी
पर मुकम्मल नहीं हो पाई
जिसे समझा था सनम
वही निकली हरजाई
कोई गिला शिकवा
फिर भी नहीं उससे
भुला दिया उसे कब का
मिटा दिया उसे दिल से
मगर मिटती नहीं
उसकी परछाई
मैंने भी मोहब्बत की थी
पर मुकम्मल नहीं हो पाई
मैंने इन्हीं आंखों से देखा
उसे किसी और का होते हुए
किसी और के नाम की मेहंदी रचाते हुए
सिंदूर लगाते हुए
मैंने इन्हीं आंखों से देखा
जो कभी मेरी थी
हक था मुझपे उसका
एक क्षण में हो गई पराई
मैंने भी मोहब्बत की थी
पर मुकम्मल नहीं हो पाई
मैंने भी मोहब्बत की थी!