कठपुतलियाँ...
कठपुतलियाँ...
वक्त के हाथों हम सब
कठपुतलियाँ हैं...
एक डोर खींचे, तो
हम नाचने लगते हैं
और दूसरी डोर खींचते ही
हम सब रुक जाते हैं !
ये कैसी
क़शमक़श भरी ज़िंदगी...?
कहाँ का है
अपना सही ठिकाना...??
कब तक यूँ
गिरते-पड़ते चलते जाना...??
काश...काश...हम अपने
मर्ज़ी के मालिक होते,
तो बेशक़ अपनी दुनिया
अलग बसाते,
जहाँ जालसाज़ी न हो,
धोखाधड़ी न हो,
बेहयाई न हो, बेवफाई न हो...
जहाँ लोग पीठ पीछे
छूरा न घोंपे...
क्या ऐसी कोई दुनिया नहीं,
जहाँ चापलूसों का बोलबाला न हो,
चमचागीरी और खुशामदी न चले...???
मगर अफसोस ये है कि
आजकल लोग
घड़ी की सुईयों-सा
अपना दैनंदिन कर्म किया करते हैं...!!!
किसी के पास, किसी दूसरे के लिए
निस्वार्थ भाव से
वक्त बिताने का भी
थोड़ा-सा वक्त नहीं...
सचमुच हम सब
कठपुतलियों से कम नहीं..।!!!
