रिश्तों की गठरी
रिश्तों की गठरी
हौसलों को अब पहली सी फतह नहीं मिलती,
दिन तो निकलता है पर वो सुबह नहीं मिलती,
लगता है इक उम्र से लादे हूँ रिश्तों की गठरी,
खोलकर बिखेर तो दूँ मगर गिरह नहीं मिलती,
कुछ दिल की खामोशी भी मेरी समझ से परे है,
नामुराद को अब धड़कनें की वजह नहीं मिलती,
नाज़ुक-मिज़ाज है दोस्ती भी अब वक़्त के चलते,
उम्रदराज़ होते ही बचपन की सुलह नहीं मिलती,
खार हैं कि चुभते रहते हैं, टूट कर गिर जाने पे भी,
बिखरे इन गुलों की तबीयत में निबाह नहीं मिलती,
किया है यही ज़ुर्मे-इक़बाल काफी है फैसले को,
साहिब, इश्क़ की अदालत में जिरह नहीं मिलती,
'दक्ष' तुम दर्द की इंतिहा से गुज़रना सीख जाओगे,
इस ज़िन्दगी में मुहब्बत यूँ ही बेवजह नहीं मिलती।