रिश्ता
रिश्ता
भाग रही जिस द्रुतगति से ये दुनिया
किसी को नहीं पता किस ओर,
कल्पना स्थायित्व की संभव नहीं इस परिप्रेक्ष्य में
रिश्तों का ओर है न छोर.
परिस्थितियाँ भी हैं विषम
परिवेश भी बदल रहे हर क्षण,
ऐसे में जब विरला कोई करता प्रयास
बनाने का प्यारा-सा एक रिश्ता पावन.
साफ़-सुथरे उस रिश्ते को शक की निगाह से
ये दुनिया लगती है देखने,
झक-सफ़ेद धुले उस सुलझे व्यक्तित्व के पीछे
छुपी हुई मंशा लगती है ढूँढने.
असफल हो जाने पर इस खोज में
लगाते उस पर आरोप अनैतिकता का,
विवश कर देते उसे खडा होने को
तथाकथित सामाजिक कठघरे में.
पर काल का कठघरा,
समय की अदालत –
वहाँ कौन खडा करेगा किसको ?
कौन होगा दोषी, कौन न्यायाधीश ?