कितना सौंदर्य बिखरा
कितना सौंदर्य बिखरा
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
प्रकृति करीब जाओ जितने
अपनी ओर खींचने को आतुर
बाहरी आंतरिक सौंदर्य लबालब
अद्भुत सम्मोहन शक्ति स्वामिनी
इतनी मोहक ठिठके रूखा आदमी
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
अलग अलग रूप हर रूप अलग
दैवीय सौंदर्य सौंदर्य का रसपान
प्रकृति प्रेम प्रेमी ही करे अहसास
इसकी विभीषिक कांटों संघर्ष
संघर्षों में भी इसका अनूठा सौंदर्य
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
सघन अरण्य रुख बाहुपाश प्रकृति बांधे
अनुपम सौंदर्य लंबे घने तरुवर सागर,
नाना रूप कुछ नन्हें कुछ आसमां को चूमते
सबके अलग रंग, सबकी अलग पत्तियां
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
स्वयं के रूप से संतुष्ट न ईर्ष्या न द्वेष,
जो मिला उसमें खुश, स्वयं में मस्त,
झूमते गाते जीवन सरलता से जीते
नजर आते लिपटी खूबसूरत लताएं
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
प्रियतमा से प्रेम प्रदर्शित
थोड़ी-सी इठलाती मनमोहक
नयन-आकर्षक जंगली फूल सज्जित,
एक अलग खुशबू
महकता अरण्य सुरभित
अरण्य गोद विचरते सुंदर जीव-जंतु
रंग-बिरंगे आकर्षक पक्षी
कलरव से गूंजता सन्नाटा...अद्भुत....।
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
रेगिस्तान, रेत सौंदर्य अनूठा ।
सूर्योदय-सूर्यास्त स्वर्णथाल,
तो दुपहरी में रजतथाल...।
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
रेत के चमचमाते टीले
टीलों में पवन की चंचलता
प्रकट करती नक्काशी-सी
लहरदार लकीरें मानो रात राधा
इंतजार करते कान्हा बैठे-बैठे
लकीरें खींच दी हों...जैसे
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
उत्कट जिजीविषा कंटीली हरीतिमा...।
थोड़े में संतुष्ट खुश रहने को विवश
कला सिखाते रंगीन फूल युक्त नागफणी।
संघर्षों में जीना सिखाता
टेढ़ा-मेढ़ा सा खूबसूरत ये ऊंट।
कितना सौन्दर्य, प्रकृति हाथ ना खाली
सबको कुछ न कुछ विशिष्ट अलंकृत
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
हीरक ताज धारण पर्वतराज
चित्ताकर्षक सौंदर्य स्तब्ध
सर्पिल सड़कों से गुजरो,
तो ये कहती हैं - देखो
तुम्हारी जिंदगी की राह
कुछ ऐसी ही हैं न सर्पिली
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
हर चंद कदमों बाद एक नया मोड़।
कभी राहत का मोड़ कभी संघर्षों का मोड़।
ये मोड़ भी जरूरी लक्ष्य तक पहुंचने
उन्नति की चढ़ाई आसान जो करते
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
पानी ऊंचाई से गिर, हार नहीं मान,
पहाड़ों पत्थरों से ठोकर खाकर
अप्रतिम झरने में बदल
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
हमें सिखाता यही संघर्षों
हार न मान, न मना गिरने का शौक
हमेंशा नई राह पर चल
स्वाभिमान से व्यक्तित्व
नए सौंदर्य में ढाल
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
पहाड़ों के कोख से निकल
बाबुल के दामन में हरियाली
बिछाती नदियां कलकल निकली
नए परिवेश हरीतिमा देने।
नई संस्कृति को जन्म देने,
सृजनशील नारी की तरह...।
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
विश्वास नहीं हमारी धरती
सूर्य तरह धधकती थी ग्रह
वर्षों की तपस्या रूप पाया
शानदार वृक्ष, खूबसूरत पहाड़,
शांत-सौम्य सागर, समंदर
उछलते खेलते नटखट झरने
उत्तरीय सी लिपटी नदियां।
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
जब मानव आया धरा
भूखे नंगे घूमे यहां वहा
वृक्षों ने पनाह दी,
फलों से क्षुधा तृप्त
जीवित प्राण वायु
उपहार भेंट स्वरूप
नदियों ने प्यास मिटाई
दिल खोल नवागत
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
देवी माना बनाया देवताओं
बुद्धिमान मानव बुद्धिहीन
बुद्धिमान होते ही मूर्ख
यह सब बस हमारा
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
और-और की चाह चरम
लोभ की पराकाष्ठा प्रबल
विकास की उत्कट चाह
प्रकृति जीवनदायक विनाश
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
भूल गया मानव ये है
तभी उनका अस्तित्व
थम नहीं रही लालसा
मूक साथी मौन बाधिर
दे रहा मौन बलिदान
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है...
पर प्रकृति अब नहीं
सह पा रही नहीं अब
करने लगी प्रतिकार
अब भी न समझा तो
भयानक रूप देखने को
तैयार रहना होगा...मानव
कितना सौंदर्य बिखरा
हर दिशा चाहु ओर पड़ा
संपन्नता में भी सौंदर्य,
विपन्नता में भी सौंदर्य,
सुरुपता में भी सौंदर्य
कुरूपता में भी सौंदर्य।
प्रकृति अब नहीं सह पा रही,
प्रतिकार करने लगी है... ।
