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Vivek Madhukar

Abstract Romance Others

4.8  

Vivek Madhukar

Abstract Romance Others

संपूर्णा

संपूर्णा

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कहती रहती हो तुम – “कितनी गंदी दिखती हूँ मैं”

चलते-फिरते बोलती रहती “खूबसूरत नहीं मैं”

अभी उस दिन कह रही थीं तुम “गुण-संपन्न नहीं मैं”

कहती रहती सदा खुद को “भग्न, अस्त-व्यस्त, अपूर्ण”

मेरे लिए परन्तु हो तुम “सम्पूर्ण”!

   कृतज्ञ हूँ मैं कि तुम हो.


अकेली ही तो थीं तुम उन कठिन रास्तों पर, दुश्वार क्षणों में

नहीं तुम महज दोषहीन, तुम हो योद्धा, तुम हो साहसी.


महसूस किया करती तुम अपने अंतर में अस्थिरता,

असुरक्षा, सर्वस्व लुट जाने का अजाना भय

   करती रहती अभिप्रेरित हर जन को,

   अनुप्राणित हर कण को

   खुद भले नहीं होती प्रवृत्त इस दिशा में.

शायद इसलिए कि ये मेरा उत्तरदायित्व है –

   करना प्रेरित तुम्हें, भरना

   उत्साह की हवा तुम्हारे परों में

इसी हेतु ज़रूरत है हमें एक-दूसरे की,

हम पूरक हैं एक दूजे के.


प्रेम है स्वीकृति, और है अंगीकरण दूजे का

प्रेम है उपचार अंतर्मन की विसंगतियों का.


सच्चा प्यार समृद्ध करता है,

कर जाता है अन्त स्थल को अनुप्राणित

सौभाग्य से मिलता है यह,

नितांत अभाव है संसार में इसका.


मेरे लिए, मेरी प्रियतमा, तुम हो

   सर्वोत्तम, सर्वसिद्धा

तुम ही तो हो मेरा “खूबसूरत घर”!


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