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Vandana Singh

Drama

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Vandana Singh

Drama

रिहाई

रिहाई

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विश्वास,किस दिन,

किस वक़्त खत्म हुआ,

नहीं जानती।


सारी सवेंदना,

कब कैसे,

वेदना बन गयी,

नहीं जानती।


वक़्त तो कभी,

बीता ही नहीं,

बस युग काटा मैंने,

चुपचाप मौन रहकर।


खुद से खुद को,

बाँटा मैंने

फिर भी जी को,

कचोटती रही।


मेरी आजीवन,

की तन्हाई,

यूँ लगता है कि,

मरकर ही,

मुझे मिल सकेगी,

रिहाई।


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