क़यामत
क़यामत
साँसें आज पहली दफ़ा पराई सी लगी,
ज़िन्दगी से होने अब जुदाई सी लगी।
क़यामत का अंदाज़ा हमें पहले से था
फिर भी क़ज़ा आए जाँ पछताई सी लगी।
चौखट पे हिज्र की हम खड़े हैं यूँ कि,
क़ीमत-ए-वस्ल आज चुकाई सी लगी
खिलने से पहले इस गुलिस्ताँ में ऐसी
कितनी ही कलियाँ मुरझाई सी लगी।
जाने क्यूँ दिल में इक दहशत सी जगी,
बज उठी जब दूर कहीं शहनाई सी लगी।
‘अभि’ के जनाज़े पे क्या निकले अश्क़ तेरे
हर बूंद उसकी चाहत की गवाही सी लगी।

