पूर्णिमा
पूर्णिमा


पूर्णिमा की मनोहर रात्रि
बीत रही पल पल
मेघों से अटखेलियां करतीं
धवल किरणें चंचल
कोमलाङ्गी विरहिणी
रक्त मसि से लिख रही
विरह की अश्रु पूरित
वियोग कविता सरस
पूछ रही चाँद से
बिन प्रिय के
कैसे तू इतना उज्ज्वल
देख तुझे हृदय मेरा
हो रहा है दग्ध
श्वास बना उच्छवास है
गात दहकता अंगार है
सखि चन्दन का लेप लगा
उसके आने तक सजग बना
पूर्णिमा के अस्त होने तक
किस विधि प्रिय से मिला
या कह दे चाँद से
कहीं और जाकर
अपनी चांदनी गिरा!!