पूरक
पूरक
मैं देवालय की देहरी का दीपक ,
तुम मन्दिर की देवी के सम हो
ज्योति मेरी तुम से ही प्रज्वलित
करुणा ममता का तुम संगम हो
मैं निखरूँ और हो जग प्रदीप्त
तुम ओढ़े फिरती ख़ुदपर तम हो
किन किन उपमाओं से मैं सींचूँ
शब्दों की हर परिभाषा तुम हो।
मैं पथिक खोजता राह लक्ष्य की
तुम सितारा वो जो दिशा दिखाये
मैं राह रहा चिंतित और भ्रमित ही
तुम नीर जो सब शीतल कर जाये
हूँ उत्कंठा और बस आवेग रूप मैं
तुम को ही सब धैर्य समर्पण भाये
अनुगामी बन कर जो आयीं जीवन
नेत्री बन सब जीवन मंत्र सिखाये ।
जाने कितनी थीं दुविधा इस जीवन
फिर भी तुमने बस आस न छोड़ी
मैं तो खाकर हर ठोकर था बिखरा
पर विश्वास डोर थी ना तुमने तोड़ी
मैं अधीर रहा फिर विचलित कितना
तुम संयम से मंज़िल की चढती पौङी
पूरक रहे हैं हर सफ़र में एक दूजे के
जुग जुग रहे जीती ये अपनी जोड़ी।
ये रचना पति और पत्नी के रिश्ते में कैसे वे एक दूसरे के पूरक हैं और कैसे एक पति अपनी अर्धांगिनी को अपना पूरक होने का आभार व्यक्त कर रहा है उसी भाव से रचित है।