पुनर्जन्म..
पुनर्जन्म..
फिर मैं भी कुछ..
यूँ ही चलते चलते...
दूर निकलता जाता हूँ
हिमखंडों का पिघल कर
नदियों की मीठी धार लिए..
खारे स्वर-सागर में उतरा जाता हूँ
कैलाश.. जन-सेवक
नगर-सेवक बन...
बरबस स्वरूप बदलता जाता है
फिर वो भी क्या..
अपने अखंड को जी पाता..
वो भी तो बस बहता जाता है
कैलाश..
आस्था ये कैसी..
बस उसे ही नृप घोषित किए जाता हूँ
आधार-स्तंभ को स्थिर किए..
जीवन राग सुनाता हूँ
नृप-दोषों में बँटा देश..
फिर भी नित नये नृप बनाता हूँ
नृप हूँ..
नृप चाह लिए..
नृप-नाद में बसता जाता हूँ..
स्पर्धा..
प्रति-स्पर्धा का दौर यहाँ पर..
हर कोई तो बह चलता है..
तेज़ वेग वायु संग अपने..
खारे समुद्र जो उतरता है
मैं ठहरा हिम-शक्त लिए..
स्थीर आधार जो जीता हूँ..
फिर भी धँसना है..
मौन मुझे..
हिमखण्डो का वो तेज लिए..
हिमखण्डो का वो तेज लिए।