सोचते विचरते ठिठकते दृश्यांतरों में..
सोचते विचरते ठिठकते दृश्यांतरों में..
सोचते विचरते ठिठकते दृश्यांतरों में
फिर भी निकल पड़ता हूँ खुद के नव अभिनवों में
सोचते विचरते ठिठकते दृश्यांतरों में
सुबह सुबह जहाँ कभी ठेस थी लगती
उबर खाबर पथरीले से रास्तों पे
रुकता संभलता खुद से कुछ बातें करता जाता
कुछ सगेपन का अहसास पाता
वहाँ अब सिमेंटेड पीच सड़क नई जो दिख जाती
चलता मचलता मैं बढता ही जाता बिना रोके टोके
अभिरामों में अपने अब भी वहाँ पे
सोचते विचरते ठिठकते दृश्यांतरों में
लौटकर आयादेखा
फर्श पे गिरी एक मॉर्निंग न्यूज पेपर नई नवेली
अपने घर आशियाने
उठाया मगर पढ ना पाया मन मसोसे
जो दिल खोल पढता था अपने जमाने में
सोचते विचरते ठिठकते दृश्यांतरों में
सुनता था
आकाशवाणी धुनों कोकुछ गुणों कुछ सद्गुणों को
कड़कड़ाती चपल तेज किरणें सुबह की
आवाजें छन से जो पड़ती थी कानों को जड़ती
अब कहाँ हैं वो सम-संवाद
साथ लगते होठों से चाय की प्यालियों में
सोचते विचरते ठिठकते दृश्यांतरों में
बनता था
तीन बंदर गांधी के दिखाऐ अनुक्रमों में
अनुशासन निहित थी दैनिक उपक्रमों में
अब तो गांधी ही गुम हैं सिमटे संगीन रंगीन नोटों में
खुद को बचाऐ अपने ही आईनों में
सोचते विचरते ठिठकते दृश्यांतरों में
मिलते थे
मित्र साथी संगी पास कूचों मुहल्ले गलियों में
उड़ाते हँसी की धूल मजाकिया खिल्लियों में
अब ढूंढता हूँ उस खुशी को फेसबुक व्हाट्सप
ट्विटरी मोबाईल गलियों में मगर जी ना भरता
सोचते विचरते ठिठकते दृश्यांतरों में।