एक अविरल प्रकाश जो 'चैतन्य' बनता जाता
एक अविरल प्रकाश जो 'चैतन्य' बनता जाता


क्षण भर मुझे क्यों है ऐसा लगता
चल रहा था जैसे
हरे पत्तियों की सघन चादर ओढे
और चल रहीं थी साथ कितनी आवाजें
लोग आते-जाते
चिड़ियाँ पक्षियाँ चहचहाते
और साथ चलती एक स्फूर्त परछाई मेरी
कुछ आगे-आगे
तभी झाँक अपने मोबाईली आईनें में
खुद के बनते मचलते धुनों में
कुछ कैद करने कि
जैसे चौंधिया गया मैं देख
कभी मैं उसमें छुपता
कभी वो मुझमें छिपती
सजती सँवरती
फिर चल निकलती
गले से लिपटती
बड़ी शातिर सी ये आँख-मिचौली है लगती
क्लिक करता गया मैं
खुद के चेतन को जगाता गया मैं
एक अविरल अविच्छिन्न प्रकाश सा बन रह गया
कुछ मैं भी
कुछ वो भी
रह रह ख्याल आता कुछ ऐसा
एक अविरल प्रकाश जो 'चैतन्य' बनता जाता
एक अविरल प्रकाश जो 'चैतन्य' बनता जाता।