देख रहा हूँ जड़ चेतन से..
देख रहा हूँ जड़ चेतन से..
देख रहा हूँ जड़ चेतन से..
गगन सघन मन उपवन के
किस छोर से आयी हो.. शुभ्रिता
मेरी मुस्कान बन के..
जैसे लगता है वर्षों बीते हो छूटे
उस दृश्यावलोकन के.. सुलोचन से..
माटी की मीत तो बस जाकर उड़ती
और जाकर गिरती अपने प्रण कण कण से..
फिर आज..
किस ओर से आयी हो.. शुभ्रिता
मेरी मुस्कान बन के..
जानती हो उस दर्पण को..
अर्पण को..
वो तो इन्हीं कणों में उड़ता चलता है..
और फिर खोजता है तरु तर्पण को..
फिर आज..
किस तरुवर से आयी हो.. शुभ्रिता
मेरी मुस्कान बन के..
अदृश्य पड़ा था उन शिखाओं से लिपट..
जकड़ अकुलाऐं जड़ जठर लोक में..
सींचे तन वट व्योम में..
पुष्प गुच्छ दिव्य शिखर लोक में..
कण कण अंकन लिप्त पराग से..
फिर आज..
आ ही गयी तुम शिखर पे मेरे.. शुभ्रिता
मेरी मुस्कान बन के..
देख रहा हूँ जड़ चेतन से..
देख रहा हूँ जड़ चेतन से..

