और कितने अभिनाट्यों में हैं हम
और कितने अभिनाट्यों में हैं हम
एक दुरह अंत; और कितने अभिनाट्यों में हैं हम।
गरिष्ठ, पौष्टिक या स्फटिक; फिर भी हैं कितने कम।
छायावादिता से परे एक संपूर्ण साकार..
कितने ही निष्ठुर, आतुर और व्यभिचार।
बन जाता हूँ एक छाया-छत्र को लिए.. छत्रपति।
आधिपत्य सा जीवन; कटु-सत्यों के अधीन..
बन जाता एक क्षणिक अधिपति।
सत्य अन्वेषण के विद्या-सागर का विद्यापति..
माथे पे तिलक जन्म-सुशोभित..
मान-मर्यादाओं का शीशपति।
..और कितने अभिनाट्यों में हैं हम!!
