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mamta pathak

Tragedy

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mamta pathak

Tragedy

पत्थर

पत्थर

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ज़िन्दगी के, सोलह बरस खर्च किए

सोचा एक पत्थर को हीरा बनाउंगी

प्यार की छेनी से कुरेद कर 

सम्मान की हथौड़ी से ठोककर

अपनेपन से रगड़-रगड़ कर

एक खूबसूरत प्रतिमा गढ़ दूँगी

मगर वह पत्थर था 

प्यार की छेनी जब -जब चलाई

वह छिटकता गया हर बार

उन छिटकते टुकड़ों ने 

मुझे ही किया लहूलुहान बार -बार

सम्मान की हथौड़ी भी 

बार -बार खुद ही टूट जाती थी

उस पत्थर की धूल मेरा ही सम्मान

राख-राख कर जाती थी

अपनेपन की रगड़ से मैं खुद ही

खत्म हुई जाती थी

अपनी एक कोशिश से

मैं कई-कई बार हार जाती थी

सोलह वर्षों बाद समझ आया 

वह पत्थर था कोई मुलायम माटी नहीं

जहाँ खिंच पाती नेह की कोई लकीर

उभर पाती मनमोहक कोई तस्वीर 

कितना भी तराशो, पत्थर तो रहेगा पत्थर

कहाँ बोलेगा वह कभी हंसकर या झुककर।



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