परवाज़
परवाज़


मेरे अधूरे ख्वाबों को साकार करना चाहती हूँ,
मैं अपने ख्वाबों को परवाज़ देना चाहती हूँ।
एक कारवाँ गुज़ार गया मैं पीछे ही खड़ी रह गई,
अब खुद को और अपनी खुशियों को,
फिर आवाज़ देना चाहती हूँ,
मैं अपने ख्वाबों को परवाज़ देना चाहती हूँ।
सूनी पड़ी, ज़िन्दगी की राहों में,
मैं इंद्रधनुषी रंग भरना चाहती हूँ,
अपने ख्वाबों को वक्त देकर,
उन्हें आकार देना चाहती हूँ,
मैं अपने ख्वाबों को परवाज़ देना चाहती हूँ।
अब खामोशी की मूर्ति नहीं,
शंखनाद करना चाहती हूँ,
अब शीतल पवन के संग,
नदी के रंग में बहना चाहती हूँ,
मैं अपने ख्वाबों को परवाज़ देना चाहती हूँ।
अब दर्द नहीं ,अब आहें नहीं,
चारों दिशाओं से रागिनी सुनना चाहती हूँ
प्रेम ही प्रेम हो हर तरफ,
मोहब्बत के आशियाँ में रहना चाहती हूँ।
मैं अपने ख्वाबों को परवाज़ देना चाहती हूँ।