किसान
किसान
हर दर्द धरा के सहता है, फिर भी चुप रहता है।
वो धरती माता का बेटा, औरों के हित जीता है।
सीना चीर कर वसुधा का, खेतों में अन्न उगाता है।
अन्न उगाकर धरती के, हर प्राणी की भूख मिटाता है।
हैं कुछ सपने उसके भी, एक समय वो आएगा ।
अपने बीवी बच्चों के खातिर सुन्दर घर बनवाएगा ।
शहर वाले अंग्रेजी स्कूल में उसका बच्चा पढ़ने जाएगा।
यहीं भाव मन में रख वो नित खेतों को जाता है ।
अच्छी फसल उगाने को अपनी सारी शक्ति लगाता है।
खेत जोत बोता फसलों को संचित धन खपाता है।
इस साल फसल अच्छी होगी यह सोच बहुत इतराता है
जैसे माँ बच्चों को पाले वो फसल का पोषण करता है।
जाग जाग कर रातों को पशुओं से रखवाली करता है।
पर उसके वो सपने सारे उस वक्त चूर हो जाते है,
तैयार फसल होने तक आधी आवारा पशु खा जाते हैं ।
जो बचती है वो पक्ती है, फिर प्रकृति खेल दिखाती है।
अंश मात्र घर आता है बाकी, बाकी बारिश ले जाती है।
उचित मूल्य भी ना मिलता जो मुश्किल से घर आता है।
सस्ते दामों में खरीद कर कोई साहूकार ले जाता है।
पत्थर रख कर छाती पर वह सब दुख दर्द सह जाता है,
वो अन्नदाता है जिसका सपना सपना ही रह जाता है।
