अपनों की बात
अपनों की बात
आओ बात करे हम अपनों की,
अपनों के स्वार्थी सपनो की।
जिस धरा पर हमने जन्म लिया,
उसकी रक्षा के जतनो की।
दूहा अकूत धन, जल और ईंधन,
दी बलि सघन जंगलो की।
खनिज निकाला छाती चीर,
खाने खोदी अमूल्य रत्नों की।
क्यों बात करे हम अपनों की,
अपनों के स्वार्थी सपनो की।
क्यों काटे हरे अरण्यों को,
उजाड़े खग-वृन्द निलयो को।
क्यों करे उस शांत महीधर पर,
विस्फोटक के हमलो को।
निज भोगो की पूर्ति को हमने,
रौंदा प्रकृति के कमलो को।
आधुनिकता और भोगो से ही,
बढ़ाया ओजोन के छिद्रो को।
ना माफ़ करेगी भावी पीढ़ी,
हम जैसे भोगी दरिद्रों को।
धिक्कार हमारी खुदगर्जी को,
बेकाबू होती मनमर्जी को।
ये सुरसा के मुंह सी जरुरतो ने,
तैयारी कर ली कफनो की।
क्यों बात करे हम अपनों की,
अपनों के स्वार्थी सपनो की।
अब भी जागे तो देर नहीं,
माँ के प्रति अंधेर नहीं।
सहेजे बहते निर्मल जल के,
झरनो के मधुर कलरव सही।
रोंपे सुंदर से पुष्प कलि,
लता-कुंजो के उपवन सही।
तो बात करे हम यत्नों की,
करने योग्य प्रयत्नों की।
अवनि फिर सहेजने की,
शपथ उठा ले अपनों की।
तो बात करे हम अपनों की,
अपनों के निर्मल सपनों की।
