निर्मल न रहा नीर
निर्मल न रहा नीर
निर्मल न रहा नीर है
मनुज क्यों अधीर।
देता भूमि को चीर।।
दूषित हो गयी समीर।
निर्मल न रहा नीर।।
डर भगवान की ख़ातिर।
धर स्वार्थी थोड़ा धीर।।
जब जब मनु ने स्वार्थ ने,
किया वसु का ह्रास है।
तब तब प्रभु ने काल बन,
किया सर्वदा विनाश है।
बचा कर अपनी मातृभूमि,
बनना तुझे इतिहास है।
कर अम्बु का बचाव तू,
अब वक्त न तेरे पास है।
दूहा हमने अकूत जल,
छाने वाला अंधकार है।
पीढ़ी जो आने वाली कल,
कहेगी पुरखों धिक्कार है।
अपनी ग़लतियाँ पहचान तू,
जो दोहराता हर बार है।
अब भी न गर चेता तो,
ये जीवन निराधार है।।
निज स्वार्थ की ख़ातिर,
दूषित कर डाला नीर।
नदी,नाड़ी,जमीन में,
अम्बुज(जलस्तर) गया है गिर।
विडंबना है विश्व की,
बोतल में मिलता नीर।
है मनुज क्यों अधीर,
निर्मल न रहा रहा नीर।।
