ढेरोंख़्वाब
ढेरोंख़्वाब
पानी की बूँद सी ससर सी जाना चाहती हूँ
इन हाथों से ओस की बूँद उठाना चाहती हूँ
रेत सी नहीं हूँ मैं
पर फिर भी हाथों से फिसल सी जाना चाहती हु
इस ज़माने की चोट बहुत हैं मुझ पर
मगर कोई भी ख़्वाब अधूरा छोड़ना नहीं चाहती
साइकिल के पहिए की तरह रुकना नहीं चाहती
कही ढाल से लुढ़क कर गिरना नहीं चाहती
एक क़दम की पिसलन मंज़ूर हैं हमें
मगर कोई भी ख़्वाब अधूरा छोड़ना नहीं चाहती
मगर कोई भी ख़्वाब अधूरा छोड़ना नहीं चाहती।