तुम क्यूं इतने उलझे - उलझे हो
तुम क्यूं इतने उलझे - उलझे हो
तुम क्यूं उलझे - उलझे रहते हो
तुम क्यूं उलझे - उलझे रहते हो
बातें तुम्हारी हवा के जैसी
नित प्रतिदिन दिशा बदलती है
पथ एक पकड़कर चलते हो
तो दूजी राह बिफ़रती है
सरिता के तट पर बैठे हो
पर लहरों में ही उलझे हो
तुम क्यूं इतने उलझे - उलझे हो - 2
तुम क्यूं दुर्बोध बने रहते हो
थोड़े सरल तो बनकर देखो
हिम चट्टानों से क्यूं रहते हो
सरिता से तो बहकर देखो
छोड़ कली तितली सुमनों को
फिर कांटो में ही उलझे हो
तुम क्यूं इतने उलझे- उलझे हो- 2
राजमहल की अभिलाषा में
प्रीत भरी वो डोर टूट गई
जिन राहों से चलना सीखा
वे राहें अब कहां छूट गई
छोड़ सुनहरी उन राहों को
तुम गलियों में ही उलझे हो
तुम क्यूं इतने उलझे- उलझे हो- 2
उपप्लव जब भी होता है
आकाश नहीं है शोक मनाते
हम तो संतति उनकी है जो
कुहू को भी हैं दीप जलाते
छोड़ धरा की आभा को
तुम रात अंधेरी में उलझे हो
तुम क्यूं इतने उलझे- उलझे हो- 2
प्रणय गीत की बेला पर भी
विरह गीत तुमको भाते हैं
कई पुराने घाव तुम्हारे
असमय ही डेरा डाते है
छोड़ के इस स्वर्णिम क्षण को
आतीत की यादों में उलझे हो
तुम क्यूं इतने उलझे- उलझे हो- 2