प्रेम
प्रेम
मैं माफ करते -करते थक गई,
वह गलतियाँ करते-करते न थका।
जब भी लगा ये आखिरी गलती है,
उसने फिर एक नया प्रपंच गढ़ा..
अपने आप को भुला मैंने बनाया
उसके हर मकान को बनाया घर,
अपने सपनों को सुला हर बार दिए,
उसके सपनों को रंग- बिरंगे पर,
मगर उसने हर रंग को बदरंग किया और
हर घर को बनाया कई- कई बार खंडहर।
पोटली में सहेजती रही अठन्नी ,चवन्नी
उन्ही से ले आती थी हर दिवाली एक गिन्नी
सजा देती थी पूजा की थाल में,
कर देती ऐलान कि खुश हूँ हरहाल में
मगर उसने मारी हर बार ठोकर थाल को
हर बार टुकड़े -टुकड़े हुई गिन्नी,
मैं फिर से निकालती पोटली
फिर सहेजने लग जाती अठन्नी-चवन्नी।
मेरे बनाए हर घर को उसने अपना कहा
गिन्नी से खरीदे हर सितारे से अपनी जेब भरी,
मेरे साड़ियों तक की, चुरा ली हर ज़री।
उसने समझा ये साजो -सामान लेकर,
झूठ-फरेब से वह बड़ा बन जायेगा ,
मगर वह हार गया जब प्रेम मेरे साथ
और नफरत उसके साथ थी खड़ी।