प्रथा नहीं कुप्रथा
प्रथा नहीं कुप्रथा
जहाँ नारी ही करे नारी का दमन
तो निश्चित है उसके अस्तित्व का शमन
बड़ी वीभत्स हो जाती है परिस्थिति
ना पा सकी नारी शोषण से मुक्ति
क्यों बढ़ता जा रहा आखिर ये सामाजिक रोग
अत्याचार सहती वो मानकर संजोग
धन की लोलुपता ही कराये ये व्यभिचार
जब गुणी सुशील भी पाए तिरस्कार
दहेज़ प्रथा कलंक इस समाज पर
आखिर क्यों सही दंश वो स्त्री होकर
स्त्री भी तो एक अनमोल धन है
उससे ही उत्पन्न ये मानुष जीवन है
इस अभिशाप से किसने क्या पाया
चंद टुकड़ों की खातिर एक बेटी को सताया
मिलकर समाज में बदलाव लाना होगा
थोड़ा जागरूक हो एक दूसरे को जगाना होगा
बेटियों को करो शिक्षित सिखाओ स्व-अधिकार
इस कुरीति से लड़ पाए करे वो भी प्रतिकार
बिना भेदभाव करो समानता का व्यवहार
उसका भी हक़ हो पाए हर अधिकार
इस कुप्रथा को गर दूर भागना है
तो प्रथम दृष्टया
हर बेटी को स्वावलम्बी बनाना है