प्रिये-॥
प्रिये-॥
मैं ठहरा अनुगत नर स्वामी
तुम भार्या हुक्मरान प्रिये,
क्षण भर में प्रकट होता मैं
सुन तेरा फ़रमान प्रिये ।
मैं ठहरा कंठ काग का
तुम कोयल की तान प्रिये,
मधुर वाणी से जब तुम पुकारती
क्यूँ हो जाता मैं हैरान प्रिये ।
तुम महलों की उड़ती तितली
मैं लघु कुटिया का भँवरा प्रिये,
चार कोनों में सिमट रह जाओगी
कैसे रखूँ सिर अपने सेहरा प्रिये !
मैं मंत्रों का उच्चारण
तुम उनकी व्याख्यान प्रिये
मैं तपस्वी विश्वामित्र सा
तुम मेनका का व्यवधान प्रिये ।
दफ़्तर मेरा सिक्का चलता
तुम ठहरी अपवाद प्रिये
घर आकर जब रौब आज़माया
मिला भोजन बे-स्वाद प्रिये ।

