प्रिये !
प्रिये !
मैं मूक सहमा सा प्राणी
तुम तानों की बौछार प्रिये,
तुम सर्वदा बनी दरोगा
मैं अपराधी हर बार प्रिये !
तुम सूरज की प्रखर किरण सी
मैं चंद्र सा मध्यम प्रिये,
तुम निकलती जब भोर उजाले
हो जाता मैं ओझल प्रिये !
मैं ठहरा सागर का तीर
तुम लहरों की हलचल प्रिये,
जब भी बनाऊँ मैं ठौर रेत का
तुम करती उसे समतल प्रिये !
मैं सावन की रिमझिम बरखा
तुम बे मौसम सुनामी प्रिये,
मैं पूँछ तुम्हें करता हर कारज
तुम करती मनमानी प्रिये !
मैं साधारण जन मानस सा
तुम घर की सरकार प्रिये,
तुम लगाती अनुच्छेद नए नित
मैं शोषित लाचार प्रिये !