परित्यक्ता की यात्रा
परित्यक्ता की यात्रा


दर्दनाक है,
रिश्ते में उम्मीद का न होना।
उस से भी पहले दोनों में से
किसी एक का उस रिश्ते में
पूरा मौजूद न होना।
अधूरा पन नोचता जाता है
अपने दांतों से धीरे-धीरे
रिश्तों की नाजुक खाल को,
सोखता है दर्द मन
सजती जाती है
उतनी ही भव्य दुकान तन की
बनाये रखने को आमद
उम्मीद की।
आता है
अवश्यंभावी भूकम्प और
फिर मरघट सी शान्ति
छटपटाहट फौरन उग आती है
मन के घाटों पर ,
शनै शनै सनिश्चर चढ़ता उतरता है
सर से पांव तक।
कुकुरमुत्ते सी
उगती है जिजीविषा
फिर शुरू होता है
नया परिस्थितिकी तंत्र जीवन का
सहजीविता, परजीविता
साथ साथ चलते हैं।
एक भोर कुछ अश्रु अतीत के
छिड़कते हुए अपने दल पर
नए पुष्प खिलते है,महकते है
गहरी दबी उन्ही
रिश्तों की खाद पर।
जीवन वृद्धावस्था सा
देखा-अनदेखा
सुना-अनसुना करते
चलता जाता है
अपने अंत की ओर।