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Shakuntla Agarwal

Abstract

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Shakuntla Agarwal

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परिंदे

परिंदे

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पत्थरों से शहर में,

परिंदे नज़र आते नहीं,

चुग्गा चुग कर उड़ गये,

अब लुभाते नहीं,


दिल तो खाली थे ही,

इमारतें भी अब खाली हो गई,

पावणें आते रहते थे यहाँ, 

अब परिंदा भी पँख खोलता नहीं,


मिट्टी के घरों में,

घरौंदे भी बन जाते थे,

मिल - बाट कर खाते थे,

और चहचाहते थे,


बंद इमारतें अब हो गई,

झरोखा कोई छोड़ा नहीं,

पक्षियों की चहचाहट,


और भवरों का गुँजन,

कहीं खो गया,

इंसान इंसान न रहकर,

पत्थर दिल हो गया,


बाट जोहते हैं,

कोई आये मन बहलाये,

पन - इंसान संगदिल हो गया,

पत्थर से शहर में,


अमन - चैन कहीं खो गया,

मायावी शहर में,

हर इंसान अकेला हो गया,

लब से कहते बनता नहीं,


पन, कोरा कागज़ हो गया,

बड़ी अदब से पेश आते थे कभी,

अब कनखियों से देखते हैं,

और मुस्कुरा देते हैं,


घर आने का आग्रह करते थे कभी,

अब हँसी में उड़ा देते हैं,

आँखें नदियों सी सूख गयी,

आँसू नज़र आता नहीं,


दिल कितना ही ग़मगीन हो,

"शकुन" रोया भी जाता नहीं।


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