परिंदा
परिंदा
काश परिंदों से पर होते मेरे
मैं भी उड़ चलता आसमां में
इस छोटी सी जिंदगी में
पूरे करता अपने ख्वाब सारे
दूर शिकारी के जाल में
होता मुझे फँस जाने का डर
पर इस प्यारी सी जिंदगी में
बनाता मैं एक खुशियों का घर
दूर दूर गांव और शहरों में
उड़ता रहता में मस्त मग्न होकर
जिल्लत भरी इस जिंदगी में
बिताता अपनो के साथ हर पहर
जब भी प्यास लगती मुझको
पाता मैं पानी किसी के छत पर
अपनी इस हारी हुई जिंदगी में
चलता सबको अपने साथ लेकर
उड़ता रहता अपना सिर झुकाकर
देखता सबको प्यार भरकर
उड़ता अपनों के साथ होकर
काश होता मेरे परिंदो से पर ।
