प्रेम तृष्णा
प्रेम तृष्णा
मेरे शयनकक्ष की खिड़की से
अधीर चाँद चुपके से प्रवेश करती है
आधी रात को चोर की तरह
पागल प्रेमी के चुंबन की तरह
मेरे त्रिषित अधरों पर गिरता है
मुरझाया हुआ कोई ख़्याल
इसकी करवटों में खर्राटे लेता है
और मेरा मन ग्लानि के तटों पर
बेपरवाह होकर लज़्ज़ा को त्यागता है
धीरे-धीरे उसके कोमल हाथ
मेरे वक्षस्थल की बगिया को निचोड़कर
किनारों की प्यास बुझाते हैं
मेरा कोमल बदन प्रीतम के लबों के लिए
जैसे पल-पल तड़प रहा है
करके बंद नयन, सपनों की दुनिया में खो जाती हूँ
पाप के अग्निकुंड से वासना की लहरें
धुंआ बनकर निकल रही है और
फिर आहिस्ता-आहिस्ता अपनी नम प्रेम भूमि को
कर देती हूँ समर्पण
उसके इक भूखे-स्पर्श के लिए।

