प्रचंड रूप
प्रचंड रूप
भीगे नयनों से देखा मैंने
भीषण जल प्रवाह,
मृदुल वैभव बहा ऐसे,
आया पानी का सैलाब
अर्धरात्रि की नीरवता में
प्रचंड रूप धरा गंगा ने
सुखमय जीवन हुआ स्पंदित
बह रहे थे लोग
सुनाई नहीं दे रही थी
किसी की आवाज
घर नहीं उजड़े
उजड़ गए कईयों के संसार
फैला था मरघट सा सन्नाटा
कैसा था मंजर
कांप रहा धैर्य और विश्वास था
प्राणों का आसव बह गया
शिव की सुंदर जटाओं में
बादल की वज्र घटाओं ने
छीना जन-जन का जीवन
हूक वेदना है मृदुल मन में
अपने मन की व्यथा किसे सुनाऊं
अनंत विश्राम कर रहे मेरे सपने
ललचाई नजरों में
बड़ी विडंबना मेरे जीवन की
केदारखंड में जहां स्वर्गोत्सव होता था
सृष्टि के प्रारंभ से
जहां शिव गौरी का परिणय हुआ था
वहीं शंख का नाद
घरों में सुप्त तो हो गया
आंखें नम है मेरी
मन में जख्म है मेरा
अपनी तड़पन दे दूं उसको
त्रिभुवन में जिसका बसेरा
क्या मन में जरा नहीं विचारा
हे भोले शंकर
गंगा का वेग तो आकर थम गया
तुमसे पर लाखों नैनो का वेग
तुम कैसे थामोगे
हजारों मां बहनों, युवा, बाल ,वृद्धों का
जीवन गुजर गया
अब रह गया बातों का सिला
हे भोले शंकर
मेरे हृदय की वेदना
मेरा ह्रदय हार गई है
तुम एकांत प्रिय हो इसलिए
शांत और मौन हो
गंभीर गर्जन वर्षण में भी
तुम स्थिर रहे निर्विकार
लोगों की आस्था बनी हुई है
तुम मैं करके अर्पण
अपने और अपनों के प्राणों का स्पंदन
गोद सिंदूर सब सूनी
लोग बेघर भटक रहे
हरगौरी के निवास हिमालय
भाव विषाद बरस रहे
शंकर को भोले के बदले
लोग कपाली शंकर कह रहे।