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Swaraangi Sane

Drama

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Swaraangi Sane

Drama

परावर्तन

परावर्तन

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गोधूलि बेला

और पश्चिम दिशा से

उतरा था प्रकाश

सीधे अलकनंदा के जल में

   

एक अपरावर्तित प्रकाश

ओज लिए उतरा देह के प्रिज़्म से

निकसा और हुआ परावर्तित…

            

लाल सेब-सी मुनिया

उसकी लाल रंग की गुड़िया

अवशोषित हुए शेष रंग

परावर्तित हुआ लाल रंग पहले-पहल

चटकीला !


कुछ बाद

उन दिनों जब मन होने लगा नारंगी

कुछ खट्टा, कुछ मीठा

तो स्वाद बन चढ़ा

तिलस्म- सा नारंगी

छा गया

सपनों के वितान पर


पीताबंर धारी

की ओर खिंचा चला गया मन पहली बार

किया धारण पीत वसन


तब धानी हुई पृथ्वी

हरीतिमा लिए हुए

हरी चूड़ियों की खनक से

हरियाई थी देह


परावर्तन का नया रंग चढ़ा

सावन के हरे को जैसे

सब हरा-हरा दिखने लगा


उन दिनों आसमान की ओर

देखती थीं आँखें

अब बरसीं-तब बरसीं

मेघ-बूँदें घटा बन


पूरा आसमान

पूरी धरती को नाप रहा था

आसमानी रंग कितना भा रहा था


न कहा था नीले को

उसी श्याम को, उसी कृष्ण को

नीले की नहीं मैं

यह कहने के बावज़ूद

बिखरा-छिटका


छिटका-बिखरा

नीला नीला हुआ समुद्र

बैंगनी था प्यार का रंग

जामुनी था इतना गहरा

कि कुछ और अधिक होता

तो स्याह भी हो जाता


सब अवशोषित किया था मन ने

स्याम होने से ठीक पहले

नीला गाढ़ा, नीला, जामुनी रंग

अवतरित हुए थे जिसे लिए

राम, कृष्ण और शिव शंकर


अब ऊर्ध्व होना ही था प्रिज़्म को

क्रोधाग्नि को दबाया

लाल लावा शांत हुआ

सोने-सा तपाया

अग्नि-सा, नारंगी रंग

शांत हुआ


दमका तो कुछ दीप्त हुआ

गर्व से सने को दमित किया

तब पीत शांत हुआ


भीतर के हरेपन को भीतर ही रखा

हारा और हरा शांत हुआ

उस आसमानी माया को

उस नीले प्रेम को

उस बैंगनी लोभ को

किया शमित शांत


ऊर्ध्व प्रिज़्म से गुज़रे सारे रंग

अब निकले तो वैसे ही श्वेत हुए

जैसे आए थे प्रिज़्म तक स्वच्छ और उजले।


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