पनघट
पनघट
रीती गागर, प्यासे पनघट,
गोरी भटके लेकर घट।
कैसा आया है दौर सखी,
पानी को तरस रहे पनघट।
अब सपने बन गए हैं पनघट,
वो हँसी-ठिठोली वो जमघट।
वो छल-छल छलकती गगरी,
वो मनमोहनी गाँव की गुजरी।
अब रीते गागर गोरी के,
अल्हड़ गाँव की छोरी के।
भटकती फिरती है दर-दर,
जबसे सूख गए हैं पनघट।
सूख गया अब भूमि जल,
पनघट बन गए बीता कल।
प्रकृति से ये खिलवाड़ क्यों ?
पनघट को किया अनदेखा क्यों ?
क्यों जल को नहीं सहेजा है?
क्यों कल को किया अनदेखा है?
जैसे रीती गगरी, प्यासे पनघट,
वैसे सूख न जाए ये जीवन-घट!!
