पलायन
पलायन
वक़्त नें आज किस मोड़ पर खड़ा किया,
मानवता आज सिसक के रो रही है,
जो मानव पंछी बन उड़ा करते थे,
आज वही दो कमरों में कैद है,
दो वक्त की रोटी नें जिन्हें बेगाना किया,
आज वो लोग बिलख रहे आने को गाँव,
ये तड़प, ये आंसूओं के सैलाब,
भूखे, प्यासे मजबूरी में पैदल ही चल दिये,
परवाह नहीं, अब फ़िक्र नहीं जान की,
आंखों में बस घर का सपना ले निकल पड़े,
ये महामारी मुहँ खोले सुरसा के समान खड़ी है,
न जानें कब, कौन इसका ग्रास बन जाये,
मगर इसे हम प्रकृति का प्रकोप कहें या,
मनुष्यों की नादानी का प्रतिफल कहें,
अब जो भी हो, पर ये आख़िर पलायन क्यूँ ?
प्रान्त से दूसरे प्रान्त जाने की आवश्यकता क्यूँ ?
सियासत का इनके प्रति कर्तव्य क्या है ?
आख़िर ये लोग विवश क्यूँ है पलायन को ?
इन प्रश्नों के उत्तर मिले न मिले मगर,
वर्तमान स्थिति नें बहुत कुछ दिखाया है,
हज़ारों लोगों के विवशतापूर्ण पलायन ने,
वायरस को और भी मजबूत बनाया है,
अब ईश्वर ही जाने की आगे क्या होगा,
ये मानवता बचेगी या मिट्टी में दफ़न होगी...