पीड़ा
पीड़ा
पीड़ा बहुत घनी है
आंसुओं से सनी है
अपनी ज़माने से कब बनी है
जब भी देखो, किसी बात पर तलवारें तनी हैं
मैं कहता हूँ दिल की
वे कहते दुनियां की
दुनियां उनके साथ खड़ी है
और दुनियां से, खुद से अकेले जंग लड़ी है
वे जीतते गए, मैं हारता गया. वे अमरत्व पा गए
और हम आज भी अपने कांधो पर अपनी लाश लिए हुए ढूढ़ रहे हैं खाली श्मशान कोई
अब बात चरित्र की नहीं, बात है कितना पैसा है, कितना बैंक बैलेंस है. कैसे कमाया ये कोई नहीं पूछता
अब जब मर्यादा, चरित्र, ईमानदारी के चीथड़े उड़ रहे हों
ऐसे मैं जीना कौन चाहेगा, मैं तो नहीं
आत्महत्या की बात नहीं है
मर मर कर भी तो जिया जाता है
बस जी रहे है, पीड़ा के साथ
जैसे निकल रही हो अर्थी की बारात.