पहचाने क़ुदरत के राज़ !
पहचाने क़ुदरत के राज़ !
कोविद विपदा से डरी, सहमी धरती आज,
हे प्रकृृृति, हे परमपिता, कब खोलोगे राज़।
पिछले कई महीनों से बिखरे- बिखरे साज़,
विकसित यात्रा पर मनुज कर सकते क्या नाज़ !
सूरज की ताक़त कल जैसी,
चंदा शीतल बना हुआ है।
कलकल करती नदियां अब भी,
हवा की चाल पुरानी ही है।।
पश्चिम से यह उठी लहर है,
या अल्ला ये बुरी नजर है।
चर्चा इसकी डगर -डगर है,
दवा नाम पर अगर -मगर है।।
ताक़तवर जो देश थे बनते,
सदा सर्वदा ऐंठे रहते।
आसमान तक थे जा पहुंचे,
कुदरत की तौहीन करते ।।
जीभ चटोरी बनी थी इतनी,
जाने क्या खा जाएंं कितनी।
तय थी इनकी हस्ती मिटनी,
पल भर में बन गये वे चटनी।।
नैतिकता अब समय की मांग,
शांंत तभी हो सकेगी आग।
चलो करें हम फिर आगाज़,
पहचाने क़ुदरत के राज़ ।।
