फैंटेसी या सच
फैंटेसी या सच
रात अंधेरी थी, ऊपर वाली थी
ट्रेन में मेरी बर्थ, चला था दूर
नीचे एक बैठी थी नई नवेली
माथे पर लगाकर के सिंदूर
सोचता था मैं भी उतरकर
बैठ जाऊं, कन्या को समझाऊं
अब शादी हो ही गई है तो
बस यही सोचो कि कैसे निभाऊं
मैं कौन! मेरी तारीफ़ न पूछिए
यही नायिका मेरी पत्नी नवल
खटपट यही कि उसका प्रेमी
पीछे छूटा, मैं आया था अव्वल
महारानी जी ने यही बात
ट्रेन ही में मुझे थी बतलाई
वैसे बचपन में कभी ऐसी ही
अपनी भी फैंटेसी थी भाई
लगता था कोई कटी पतंग
आकर गिरे आँगन अपने भी
हमारी भी किस्मत ऐसी हो
अजीब हैं न ये कैसे सपने भी
चलाचल अपनी लौहपदगामिनी
पहुँच गई भोर भये अपनी मंजिल
तो अब जाकर बर्थ से उतरा मैं
धीरे धीरे यात्रियों में हुआ शामिल।