पहाड़
पहाड़
पहाड़
मुझे देखते ही चिल्लाए-पहचाना!
पहचाना मुझे!!
मैं तो पहचान गया तुम्हें देखते ही
कहाँ रहे इतने दिन ?
देखो ,इंसानों ने कैसी कर दी है मेरी दुर्गति!
काँट-छाँटकर कम कर दी मेरी ऊँचाई
मूंड दिए केश-वृक्ष
देह में बना लीं सड़कें
घर, होटल, बाजार
तकलीफें सह-सहकर मैं
पहाड़ से पत्थर का टीला बन गया
कितना रोया-छटपटाया मैं
मेरे आंसुओं से बह निकली नदियाँ
फूट पड़े झरने
सौंदर्य समझकर जिसे
देखने आते रहे पर्यटक
कभी मेरी इजाजत से
बरसते थे बादल
नदियाँ उमड़ती थीं
हवाएं पूछकर जातीं थीं कहीं
अब बदल गया है सब-कुछ
तुम अपनी सुनाओ मित्र,
बचे हुए हुए हो साबुत
कि तुम्हारा भी हुआ है
मेरे जैसा ही हाल !
कैसे बताता मैं पहाड़ को
मैं तो जाने कब से
नहीं रहा मनुष्य भी
सभ्यता की ऊँचाई पर पहुँचकर
बन गया हूँ उसी सा एक टीला।