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SUNIL JI GARG

Abstract

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SUNIL JI GARG

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पौराणिक मान्यताओं से उलझन

पौराणिक मान्यताओं से उलझन

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इतना ज़्यादा कर दिया भगवान भगवान

पता नहीं किसको मानूँ , किसको न सकूँ मान। 

और कितनी लोगे अरे भाइयों मेरी जान,

सोच पर ताले डालोगे, हूँ मैं अदना सा इन्सान।। 


भक्तों और अपराधियों में कम है इतना फरक,

भगवान के नाम पर धरती को बनाया है नरक।

खून से रंगे हाथ प्रतिमाओं पर चढ़ाएंगे अरक। 

आस्था के दरख़्त तभी तो गए हैं दरक।। 


क्या लिखूं क्या बोलूं, गुस्सा भी गया है सूख,

भगवान होता तो सबसे पहले मिटाता वो भूख।

दरअसल भगवान जरिया बना गया है दिखाने का रसूख,

गुंडों को बनाया राजा, प्रजा से हो गयी है चूक।।  


कुछ ढाँचा बनेगा, इक बुत भी रखवाया जाएगा,

किसी का दिल निकालकर किसी को लगाया जाएगा। 

मगर उस चौखट पर कोई आशिक़ न जाएगा ,

क़ौम की दोस्ती का जहां से ज़नाज़ा उठाया जाएगा।। 


हम जिसको मानते थे कहते थे राम,

जिसका नाम लेकर करते थे दुआ सलाम। 

हम करते थे, तब भी कहते थे करता वही है काम,

उसे खुद न पता होगा उसका ये होगा अंजाम।। 


क्या कहें कोई मुसीबत भी नहीं आती जो मिला दे दिलों को,

बड़ी मजबूत हो चुकी हैं दीवारें, कैसे ढायें किलों को। 

दिमाग और जुबां सब है बंद, कौन समझाये अगलों को, 

अब कुछ हल होता नहीं क्या ताक़ीद करें सिलों को। 


लिखने की हिम्मत भी रही है टूट, लगता रहता है डर,

अब तो किसी की कलम भी नहीं है अमर और अजर। 

जहन में हूक उठती रहेगी, करतूतों पर पड़ती रहेगी नजर, 

धोखे से तुम्हारा वक़्त आया है, कल हमारा आया तो अगर।।


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